Saturday, 9 October 2021

मिशन चाइना गेट

                                                                     मिशन चाइना गेट 


बचपन से ही मेरा रक्षा सेवाओं की तरफ बहुत रुझान था | साथ ही जासूसी  कहानियां और उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था | चेतन आनद की फिल्म "हक़ीक़त" देख कर तो और भी जज़्बा  बढ़ गया  था ,   सो बड़े होने पर मैंने सेना में अधिकारी के तौर पर भर्ती होने NDA  परीक्षा दो और चयनित हो गया | जल्द ही मेरी नियुक्ति मिलिट्री इंटेलिजेंस में हो गयी | 
सीमा पर चीन की तरफ से बड़ी चुनौतियाँ मिल रही थीं और हमारी कुछ महत्वपूर्ण चौकियों पर चीनियों का कब्ज़ा हो गया था | खबर आयी की ऐसी ही एक चौकी में कुछ बहुत ही गोपनीय दस्तावेज़ रह गए हैं | हालाँकि सुरक्षित रूप  छुपाये गए थे पर बहुत संभव है के वे चीनियों के हाथ पड़  जाएँ |  उन कागज़ात को वहां से हटाने की योजना बन रही थी | वहां तनाव देखते हुए बड़ी टुकड़ी भेजने राजनीतिक आदेश नहीं था अतः ये तय हुआ की केवल एक व्यक्ति जा कर ये दस्तावेज़ वहां से चुरा कर ले आएगा | 
योजना थी की हमारी पोस्ट जहाँ अभी सैनिक हैं वहां से मुंहे अँधेरा होने के बाद पैदल जाना  है और रात में ही उस खाली पोस्ट तक पहुँच कर दिनभर वहां रुकना और दूसरी रात को सभी कागज़ लेकर वापस आना है | मुझे ये समझा दिया गया की कागज़ कहाँ छुपे हैं और कैसे निकलेंगे | कुछ ज़रूरी औजार भी दिए गए | 
तय योजना के अनुसार मैंने चलना शुरू किया, ठण्ड बहुत अधिक थी पर मेरी  तैयारी पूरी थी अतः थोड़ी तकलीफ के बाद मैं गंतव्य चौकी पर सूरज उगने से पहले पहुंच गया था | वहां पहुँच कर मैंने जल्द ही दस्तावेज़ खोज लिया | अब दिनभर चुपचाप  इंतज़ार करना था  थकान से आँख लग गयी थी  की कुछ देर बाद मुझे दूर से कुछ आवाज़ें सुनाई दी |  दरवाज़े की झिरी से देखा करीब  सौ-सवासौ मीटर दूर कुछ चीनी  सैनिक थे जो इस चौकी की ओर ही आ रहे थे | वे आपस में हंसी -मज़ाक कर रहे थे शायद मेरी मौजूदगी का उन्हें आभास नहीं था पर अब क्या होगा उसका मुझे भली भांति आभास हो गया था | 
सात-आठ सैनिक जो बेफिक्र थे और सौ मीटर दूर थे उनसे तो मैं निपट सकता था पर उनसे कुछ दूर जो बड़ी पल्टन थी वो मेरे लिए चिंताजनक थी | स्पष्ट था अब मरना या पकडे जाना - मेरे पास दो ही विकल्प थे | परन्तु चिंता कुछ और थी , वे कागज़ जो अति गोपनीय थे | मैंने  दस्तावेज़ नष्ट  कर  ठिकाने लगा दिए , अब  वो लोग मात्रा २५-३० मीटर दूर थे और शायद उन्हें     अहसास हो गया था मेरी उपस्थिति का | उनका हर कदम दिल की धड़कन  को बढ़ाने वाला था | फिर  दरवाज़े पर थपथपहाट पड़ी , मैं बन्दूक  तान कर धड़कते दिल से तैयार हो गया , अब सोचने का समय निकला चूका था | हर पल दरवाज़े की बढ़ती आवाज़ के साथ मेरे दिल के धड़कने भी बढ़ने लगी | दरवाज़ा अचनाक बहुत ज़ोर से भड़भड़ाया और पसीने से तर बतर मेरी नींद खुल गयी | पास में मेरी पढाई की किताबे और टेबल पर अलार्म घडी देख में चकरा गया की मैं अपने घर में कैसे हूँ, पर दरवाज़े की आवाज़ और तेज़ हो चुकी थी | आधी नींद आधी हक़ीक़त मैं मरी आवाज़ में बोला  कौन है? 
"किवाड़ ला खोल बाबू , अब्बड़ देर ले खटखटात हूँ " ( दरवाज़ा खोल बाबू बहुत देर से खटखटा रही हूँ ) , ये हमारी बाई  थी जो घर का काम करने सुबह-सुबह आती थी | 
तब जाकर कुछ समझ आया और बच्चे की जान में जान आयी | 

पुनश्चः  -- ये कोई काल्पनिक नहीं पर असली सपना था जब मैं १२-१३ साल का था |